सोमवार, 1 अप्रैल 2013

होली और वह अद्भुत नाट्य-मंचन


हमारे गाँव की होली पूरे इलाके में सबसे अलग होती थी । मेरे ननिहाल और दूसरे गाँवों में जहाँ लोग होली में रंग-गुलाल कम और धूल ,कीचड, गोबर, मल-मूत्र ,का ज्यादा इस्तेमाल करते थे वहीं मेरे पैतृक गाँव मामचौन (मुरैना) में रंग और गुलाल की वर्षा के अलावा कुछ होता तो वह था गाना-बजाना और अभिनय...नकल । आज मैं सोच-सोच कर अभिभूत हूँ कि उस समय गाँव में कैसे-कैसे कलाकार थे ।
 'कंजूस सेठ', 'चालाक मुनीम' ,'पत्नी-पीडित व्यक्ति', 'शरीर' कर्जदार , 'दुकानदार को चूना लगाने वाला धूर्त ग्राहक' , 'मास्टर जी के पास पढने आया मूर्ख व्यक्ति 'जैसे हास्यप्रद चरित्रों को कितनी जीवंतता से अभिनीत करते थे वे लोग ।
 पूर्णिमा की रात को गाँव के सभी लोग (हर जाति वर्ग के) एक ही जगह ढोलक,मंजीरे और हारमोनियम के साथ फाग (होली के गीत) गाते हुए होली जलाते थे और फिर परस्पर गुलाल लगाते और नाचते गाते हुए घर लौटते थे । उस रात भला नींद किसको आती ! चाँदनी के उजाले में दादी हमें 'हिरनाकुस' होरिका' और 'पैहलाद' की कहानी सुनाती थीं । उधर माँ ,मौसी ( मौसी ही मेरी ताईजी भी हैं ) और गाँव की औरतें हमारे खूब बडे और लिपे हुए कच्चे आँगन में ढोलक पर --'श्याम बाँधें मुकट खेलें होरी.'...जैसे गीत बडे सधे हुए सुर में गातीं और नाचतीं थी । 
मेरी दादी तो बहुत ही सुरीला गातीं थीं । गाने में ही नही वे हर कला में निपुण थीं । अपनी कला और कठोर अनुशासन के कारण किस तरह वे घर में ही नही पूरे गाँव में सम्माननीया थीं वह सब कभी अलग से ही बताना होगा । 
रेशम की चादर की तरह सरकती पूर्णिमा की वह  रात कितनी लुभावनी होती थी ! राग रंग और उल्लास से भरी .  उधर चन्द्रमा पश्चिम की सीढियों पर उतरने लगता और इधर पलकों पर नींद का बसेरा होता था , पर सोने वाले सिर्फ हम बच्चे हुआ करते थे । माँ और मौसी को गुझिया ,पपड़ी बनाने  का काम पूरा करना होता था क्योंकि सुबह तो (प्रतिपदा को ) दरवाजे पर गाँव के लोग फाग गाते इकट्ठे हो जाते थे . हमारी नींद ढोलक मंजीरों की ताल से ही खुलती थी ।
पडवा वाले दिन की होली मर्दानी होली होती थी . पता नहीं यह व्यवस्था किसने शुरू की और उसका कारण क्या था  पर यह सच है कि प्रतिपदा का दिन केवल पुरुषों के नाम होता था.महिलाएं उनके लिए जलपान और ठण्डाई बनाने में लगी रहतीं थीं  .उनकी  होली दूसरे दिन दौज को होती थी . रंग भरा वह पूरा दिन केवल महिलाओं के नाम  होता था . 
पड़वा की सुबह से ही लोग घरों से निकल पड़ते थे . हर दरवाजे पर गाते-बजाते नाचते और रंग-गुलाल बरसाते और धूम मचाते हुए गाँव भर में घूमते थे । ताऊजी और पिताजी दोनों ही गाने-बजाने में खूब लोकप्रिय थे । पिताजी जब---"आवागमन मिटजावै, कोई ऐसी होरी खिलावै "--गाते थे तो लोग बड़ी तल्लीनता से सुनते थे । 
इस अवसर पर अगर गाँव में अनजाने या जानकर कोई दामाद आया हुआ होता तो उसे भी विदूषक बनाकर गाँव में घुमाया जाता था और वह भी काफी मनोरंजक होता था . 
दौज पूजा के बाद महिलाएं हमारे आँगन में इकट्ठी होजातीं थीं . हमारे घर चित्रगुप्त जी का पूजन होता था .कलम-दवात की पूजा होती थी . दादी कहतीं थीं कि हम कायस्थों के पास न जमीन है न जायदाद हमारी दौलत तो कलम ही है . दादी के पास कांच की एक दवात थी  जिसमें  सूरज की किरणें सतरंगी छटा बिखेरतीं थीं .  
सबसे यादगार मनोरंजन होता था दौज की रात में नाट्य-मंचन । मुझे याद है उन दिनों कुछ नाटक विशेष तौर पर मंचित किये जाते थे जैसे रूप-वसन्त ,राजा मोरध्वज, सुल्ताना डाकू, राजा हरिश्चन्द्र ,दही वाली ,वीर विक्रमादित्य आदि ।
 मुझे राजा हरिश्चन्द्र वाला नाटक सबसे अधिक मार्मिक और लुभावना लगता था । मैं उस नाटक को, जिसके संवाद छन्दबद्ध और लयात्मक थे ,पढते पढते अकेले में खूब रोया करती थी । (पता नही उसका रचयिता कौन था । वह पुस्तक अब अप्राप्य है और यह मुझे बहुत बडा नुक्सान प्रतीत होता है ) 
 वैसे तो नाट्य-कलाकार हर साल बाहर से ही बुलाए जाते थे लेकिन उस बार किसी कारण से ऐसा नही हो सका । कई जगह बुलावे भेजे गए पर राजा रानी ,जो नाटक के प्रमुख पात्र हैं ,की भूमिका के लिए कोई कलाकार नहीं मिला .
सबने कहा कि चाहे गाँव के कलाकार ही नाटक खेलें पर नाटक होना जरूर चाहिये । काफी सोच विचार कर राजा हरिश्च्न्द्र की भूमिका ताऊजी ( श्री भूपसिंह श्रीवास्तव) रानी की भूमिका पिताजी (श्री बाबूलाल श्रीवास्तव) को देना तय हुआ । पिताजी की आवाज सौम्य और महीन थी और ताऊजी की खुरदरी और मोटी ,बच्चन जी जैसी थी । कद भी वैसा ही ऊँचा पूरा (आपमें से कुछ सहृदय साथियों ने मेरे ब्लाग 'कथा-कहानी में 'चुनौती कहानी पढी होगी । वह मेरे ताऊजी पर ही केन्द्रित है) पिताजी छोटे कद के थे । यह प्राकृतिक अन्तर उनकी भूमिकाओं के लिये एकदम अनुकूल था । संवादों को गाने में तो उनका कोई मुकाबला ही नही था । अब तीसरी मुख्य भूमिका थी राजा के पुत्र रोहिताश्व की जो मँझले भैया राजकिशोर को दी गई । वे तब लगभग छह-सात वर्ष के रहे होंगे । मुझसे कोई डेढ-दो साल बडे थे । इस महान सत्यवादी राजा की कहानी को तो आप सब जानते ही होंगे । नाटक द्वारा मैंने जो कुछ जाना वह संक्षेप में कुछ यों है ---'सूर्यवंशी राम के पूर्वज राजा हरिश्चन्द्र की दानवीरता और सत्यवादिता स्वर्ग तक प्रसिद्ध थी . प्रसिद्धि कहीं द्वेष ,कहीं भय और कहीं परख का भाव उत्पन्न करती है . राजा की  परीक्षा लेने के लिये मुनि विश्वामित्र ने राजा से साठ भार सोने की माँग की (साठ भार कितना होता है मुझे नही पता किताब में यही लिखा था ) वह भी उस समय जब राजा बहुत सारा धन दान कर देने से खजाना खाली कर चुके थे । पर 'रघुकुल रीति सदा चलि आई' के अनुसार मुनि को खाली हाथ भी नही लौटाया जा सकता था । राजा ने स्वर्ण-दान के लिये उनसे विनम्रता पूर्वक कुछ समय माँगा इस पर मुनि ने पहले तो राजा का उपहास किया उनकी दानवीरता व सत्यवादिता की खिल्ली उडाई और शाप तक दे डालने की बात कही तब राजा ने स्वयं, रानी तारामती और पुत्र रोहिताश्व को बेच कर मुनि को धन देने का वचन दिया और ," अब परनाम करहुँ राजधानी ..", गाते हुए सजल आँखों से अयोध्या से विदा लेते हैं । 
मुनि ने काशी जाकर तीनों की बोली लगाई । रानी और राजकुमार को एक पण्डित ने खरीद लिया । रानी को पण्डित का पानी भरने तथा राजकुमार को पूजा के लिए फूल चुनने का काम सौंप दिया । 
राजा को एक डोम ने खरीदा जो मणिकर्णिका घाट पर शवदाह और शव-प्रवाहित करवाने के बदले 'कर' वसूलता था । उसने राजा को 'हरिया' नाम देते हुए श्मशान का यह काम सौंप दिया । 
मुनि को वांछित सोना मिल गया लेकिन बात यहीं खत्म नही होती । विश्वामित्र मुनि बडी कठोरता से राजा की सत्यवादिता और धर्मनिष्ठा की परीक्षाएं लेते रहे । वे फुलवारी में साँप बन कर राजकुमार को डसते हैं । दुःख से बेहाल रानी पुत्र के शव को गंगा में बहाने लेजाती है लेकिन 'हरिया' (डोम के नौकर बने राजा हरिश्चन्द्र) 'कर' लिये बिना रानी को पुत्र का शव नही बहाने देता । यह जानते हुए भी कि वह उसकी अपनी रानी है और मृतक अपना प्यारा पुत्र । तब अपना 'चीर' फाड कर रानी बिलखते हुए 'कर' अदा करती है और पुत्र के शव को बहा देती है । मुनि छल से राजकुमार की मृत देह को दुख की मारी बेहाल हुई रानी के पास रख कर उसे डायन घोषित करवाते हैं । काशी नरेश के आदेश पर उस डायन को मारने का काम भी हरिया को ही मिलता है । धर्मसंकट से घिरा हरिया डायन को मारने के लिये जैसे ही खड्ग उठाता है भगवान प्रकट होजाते हैं और राजा का हाथ पकडते हुए कहते हैं कि तुम अपनी परीक्षा में सफल हुए राजा । तुम्हारे जैसा सत्यवादी ,धर्मनिष्ठ , वचन निभाने वाला न कोई हुआ है न होगा । इस तरह राजा सत्य धर्म और वचन की रक्षा में सफल होते हैं उन्हें अपना राज्य-वैभव पुनः मिलजाता है ।" 
उल्लेखनीय है कि नाट्यशास्त्र के रचयिता आचार्य भरतमुनि ने साहित्य में कथा का दुखान्त वर्जित माना है । मंचन में हिंसा व रक्तपात भी प्रतीकात्मक ही दिखाए जाने का निर्देश रहा है । कथा का दुखान्त (ट्रैजिडी) पाश्चात्यशास्त्र की देन है । यही बात नायक के सकारात्मक व नकारात्मक चरित्र पर भी लागू होती है । भारतीय साहित्य में नायक की भूमिका सदा सकारात्मक और गुण-सम्पन्न रही है । दुष्ट व दुर्जन सदा खलनायक ही माने गए हैं नायक नहीं । खैर..
.राजा हरिश्चन्द्र के इस नाटक में कई बहुत ही करुणा-विगलित प्रसंग हैं जो इन पिता-चाचा-भतीजे ने इतनी सच्चाई से निभाए कि दर्शक जड़ हुए से बैठे देखते रहे और कई दृश्यों पर अपने आँसू पौंछते रहे . हाँ जब काशी में राजा रानी और रोहित ,तीनों का विछोह हुआ तब कुछ पलों के लिये तो नाटक को विराम देना ही पड़ गया था ।
हुआ यों कि किशोर भैया को सिखाया गया था कि जब वह राजा से बिछुड़ने का सीन आए तब उन्हें राजा से लिपट कर विलाप करना है । भैया जब राजा बने ताऊजी से लिपटकर रोने का अभिनय करने लगे तो सचमुच ही रोने लगे , और इस तरह रोने लगे जैसे सचमुच उनका अपने पिता से विछोह हो रहा है । तब राजा बने ताऊजी भी फूट-फूट कर रोने लगे और रानी रूप पिताजी भी । उनका गला अवरुद्ध होगया और वे संवाद बोलने की स्थिति में ही न रहे । संवाद बोले भी तो अटक अटककर .दृश्य इतना वास्तविक और मार्मिक होगया कि दर्शकों तक की सिसकियाँ सुनी जाने लगीं थी । सबकी  आँखें मानो झरना बन गईं । समय भी जैसे स्तब्ध सा रुका रह गया । कुछ क्षणों बाद जब भावों का रिसना (नाक का भी) बन्द हुआ , काँपता हुआ गला स्थिर हुआ तब कहीं नाटक आगे बढ सका था ।
ताऊजी और पिताजी दोनों ही अब नही हैं । पर उनकी उस यादगार भूमिका को याद कर हम लोग आज भी अपने आँसुओं के प्रवाह  को रोक  नही पाते ।  




8 टिप्‍पणियां:

  1. हरिश्चन्द्र की कथा आँखें नम कर देती है, कोमल संस्मरण।

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  2. बहुत ही सुन्दर संस्मरण.बचपन में हम भी हरिश्चंद्र नाटक के मंचन में भाग लेते थे.

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  3. हरीश चन्द्र की कहानी तो पूरी सुनी ही नहीं जाती इतनी मार्मिक है
    बहुत सुन्दर संस्मरण.

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  4. बहुत सुन्दर लेखन | पढ़कर आनंद आया | आशा है आप अपने लेखन से ऐसे ही हमे कृतार्थ करते रहेंगे | आभार


    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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  5. बेहद सुन्दर संस्मरण!!!बहुत भावुक कर गया आपका ये पोस्ट!!!!

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  6. कहानी कई बार सुनी लेकिन घर के लोगों द्वारा मंचन किया जाना प्रेरणादायी है
    आपने लिखा ताउजी और पिताजी नही रहे......नमन!

    कितना कुछ यादों में जीवित रह जाता है ......मझले भैया को प्रणाम....

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  7. बहुत ही सुंदर संस्मरण...गिरिजा जी आपकी भाषा-शैली सब कितनी परफैक्ट हैं ...कितना भावपूर्ण...होली का व नाट्यमंचन का वर्णन बहुत सजीव 👌👌

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