रविवार, 23 जून 2013

मन न भए दस बीस ।

महाकवि सूरदास की गोपियों ने  अपने भावों की पुष्टि के लिये 'मन न भए दस-बीस' कह कर कर उद्धव के प्रस्ताव को बड़ी चतुराई से निरस्त कर दिया था। बोलीं--"एक हुतो सो गयौ श्याम संग को आराधै ईस ।"...अब हम तुम्हारे ईश्वर की आराधना भला किस मन से करें । हमारी विवशता को समझो उद्धव जी । उद्धव जी समझ गए । समझ क्या गए, समझना पड़ा । और गोपियों का पीछा छूटा उद्धव के नीरस उपदेशों से । 
दस-बीस मन न होने की स्थिति गोपियों के लिये  भले ही एक नियामत रही हो पर जो कई तरह से बँटे हुए हैं उनके लिये तो पूरी शामत ही है। मन एक, टुकड़े अनेक । टुकड़ों के साथ जीना सहज तो नही होता । महिलाओं के साथ ऐसा कुछ ज्यादा ही होता है ।
मुझे ही देखिये । जब यहाँ (ग्वालियर) से कहीं जाती हूँ तो कुछ मन तो कट कर यहीं छूट जाता है । अब जब ग्वालियर आगई हूँ 
हमेशा की तरह मन का शेष भाग  बैंगलोर छूट गया है वह भी कई टुकड़ों में बँट कर। एक टुकड़ा प्रशान्त के पास , दूसरा विवेक के पास और तीसरा टुकड़ा  मयंक के पास ( हालांकि बहुत-दूर-दूर नही हैं पर इतने पास भी नही कि हर सुबह-शाम एक साथ बिता सकें । ऐसा अवसर साप्ताहिक ही मिलता है )। 
मन अब भी वहाँ के चिन्तन में डूबा है ।
प्रशान्त का दिन साढ़े पाँच बजे शुरु होजाता है । अब स्कूल खुल गए हैं । मान्या को तैयार होकर सात पाँच तक सड़क पर पहुँचना होता है । बस इन्तजार नही कर सकती ।इसलिये पौने छह बजे से ही उसे जगाने की कवायद शुरु होजाती है पूरे फौजी कायदों से । उसकी पेंटिंग, म्यूजिक, कन्नड़ क्लास और स्वीमिंग ,कराटे-क्लास तो पहले से ही चल रही थीं । अब लगभग आठ घंटे स्कूल के लिये भी । चार बजे स्कूल से लौटने पर  साढ़े पाँच बजे से दूसरी कक्षाएं शुरु । सोम मंगल ड्राइंग क्लास ( कन्नड़-क्लास फिलहाल बन्द करवा दी है) और गुरु शुक्र को कराटे क्लास । शनिवार और रविवार को म्यूजिक और स्वीमिंग ।
इन सब चीजों की व्यवस्था करने में दोनों सेवारत माता--पिता तो व्यस्त  रहते ही हैं । सुलक्षणा को साढ़े-सात बजे 'सी.डॅाट' (इलैक्टौनिक सिटी) के लिये निकलना होता है और प्रशान्त को 'इसरो' के लिये साढ़े आठ बजे ) नहा कर इधर मान्या कपड़े पहनती है, माँ जल्दी--जल्दी उसके गले में नाश्ता उतारती जाती है । पर मान्या व्यस्त के साथ त्रस्त भी होती है  क्योंकि उसके लिये इतना सारा बोझ कुछ भारी हो जाता है ।मेरे विचार से बहुत कुछ एक साथ सीखने में पूर्णता  या अपेक्षित कुशलता नही आ सकती । मैंने देखा है  बच्चे होमवर्क को  काफी दबाब में यंत्रवत् करते हैं । मान्या भी अपने पाठों को सोचने या दोहराने से कतराती है । और फुरसत में टी.वी.पर उसका एकाधिकार रहता है । इस व्यस्तता के बीच उसके पास अपने आप कुछ सोचने का अवकाश ही नही है जो बच्चे के लिये सबसे ज्यादा जरूरी होता है । हाँ जब भी मुझसे बात करती है, यह शिकायत करना  बिल्कुल नही भूलती---"दादी आप चाचा के घर में ही क्यों रह रही हैं । भला इतने दिन भी कोई रहता है क्या ? आपको मेरे साथ ही रहना चाहिये न ।" मैं रहना चाहती हूँ । उसे कल्पनाओं के खुले आकाश की सैर कराना चाहती हूँ । मैंने उसके साथ कुछ समय बिताया भी पर समय भी टुकडा-टुकडा । मन कहाँ भरता है इतने में ।

मन का एक हिस्सा  विवेक के पास छूटा हुआ है ,विहान के आसपास मँडराता हुआ । विहान जी आजकल स्कूल जाने लगे हैं । सो सुबह से ही उसकी तैयारियाँ शुरु हो जातीं है । चार-चार लंच बाक्स , पानी की बोतल ,बैग एक-दो जोड कपड़े..। अभी वह कुछ मौलिक शब्दों ( मामा, चाचा, मम्मी पापा ) को भी ठीक से नही बोल पाता । लेकिन यह सेवारत माता-पिता की शायद विवशता है । विवेक उसे गाड़ी से स्कूल छोड़ता हुआ ,नेहा को आटो तक पहुँचाकर ऑफिस निकल जाता है । नेहा एक कम्पनी में अँग्रेजी भाषा का सम्पादन कार्य करती है । अभी विहान बाबू कुछ कह तो नही पाते पर उनकी तो सूरत ही काफी है खींचने के लिये । मैं विहान के पास भी ठहर जाना चाहती हूँ । इतनी जल्दी नन्हे कोमल बचपन को एक नीरस और कठोर ढाँचे में ढलने से बचाना चाहती हूँ । चाहती हूँ कि वह खूब दौड़े खेले खिलखिला कर हँसे उन्मुक्त ...।
मयंक ने तो पहुँचने से पहले ही सुना दिया था--मम्मी अब मेरे साथ...नही..नही मैं मम्मी के साथ रहूँगा । 
मन जब इस तरह बँटता है तो न बाँटने वाले को राहत ,ना ही पाने वाले को सन्तुष्टि । मुझे याद है काकाजी एक सेव या आम की छोटी-छोटी फाँकें काट काट कर हम बच्चों को देते थे तब मन में कैसी अतृप्ति रहती थी । भाई नाराज होकर कहता था--"मुझे तो पूरा ही चाहिये । इन टुकड़ोंसे क्या होता है ?" 
इस खींचतान में पता ही न चला कि डेढ़ माह कैसे गुजर गया एक अतृप्ति छोड़ कर । मन कई टुकड़ों में बँटा हुआ भंवर में फँसे पत्ते की तरह वहीं घूम रहा है आगे जाए तो कैसे जाए ? कही  और भी कुछ देखे तो  कैसे  देखे ? 
विभाजन कहीं भी , किसी भी तरह का हो अखरता  तो है ही , दायरों को सीमित भी करता है !
गोपियों के पास विभाजन की न तो विवशता थी न ही लालसा । उनका स्नेह अनन्य था । अनन्य भाव में दस-बीस मनों का कोई करेगा भी क्या ! लेकिन यहाँ तो विवशता भी है और लालसा भी । तब सूरदास जी का पद कुछ इस तरह  बन सकता है---
" काश कि मन होते दस बीस 
टकड़ा-टुकड़ा मन देकर यों ना कहलाते 'चीस' । ( कंजूस) 
टुकडों से सन्तोष न होवै ,पल-पल रहती टीस
घट बूँदों से कब भरता है ! जतन करो छत्तीस । 
कहाँ-कहाँ ,कोई कैसे जाए ,रस्ते इक्कीस ।
टुकड़ा-टुकड़ा जीने का संकट हरलो हे ईश ।
काम नही चलता एक मन से दे दो प्रभु दस-बीस "।
--------------------------------------------------------------------


7 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहा, न जाने कितना करने की चाह, कितने स्थानों पर होने की चाह, दस बीस मन भी कम पड़ते।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत ही प्यारी पोस्ट..अपनी जिंदगी से जुड़ी हुई।

    जवाब देंहटाएं
  3. Ek hi post me aap sab ke hal chal mil gaye didi :) bahut achcha laga ye blog.

    जवाब देंहटाएं
  4. ये तो कलेजे के टुकड़े हैं.... यही हो दस-बीस मन हैं...

    जवाब देंहटाएं
  5. टुकडा-टुकडा जीने का संकट हरलो हे ईश ।
    काम नही चलता एक मन से दे दो प्रभु दस-बीस ।
    :)

    जवाब देंहटाएं
  6. टुकडा-टुकडा जीने का संकट हरलो हे ईश ।

    इस प्रार्थना में एक स्वर मेरा भी!

    जवाब देंहटाएं