गुरुवार, 13 मार्च 2014

एक के दो , दो के चार ।

एक संस्मरण 
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मेरे मिष्ठान्न--प्रेम को मेरे सभी परिजन जानते हैं । ताऊजी के परिवार में किशोर भैया को और हमारे बीच मुझे ,दोनों को बचपन में ही चींटों की उपाधि मिल चुकी थी । जहाँ मिठाई दिखी हम हाजिर । किशोर भैया का इरादा तो शीशी में शहद भरकर जेब में डाले रहने का रहता था कि जब चाहो थोडा सा चख लो । ऐसा वो कई बार कर भी चुके थे । मैं बतादूँ कि मैं इस प्रेम में अपनी तीन दाढें और एक दाँत गँवा चुकी हूँ अभी एक दो जाने की कतार में हैं । खैर ..मेरे उस प्रेम की एक रोचक और अभूतपूर्व दास्तान है । तब मैं नौवीं में पढती थी । 
सन् 1973 की होली थी । 
होली पर हमारे गाँव में भाँग पीने का बडा चलन था । क्या बूढे और क्या बच्चे ..यहाँ तक कि महिलाएं भी बेहिचक भाँग पी लेती थीं । दूध बादाम कालीमिर्च के साथ सिल-बट्टा पर घोंटी गई भाँग । पूर्णिमा की रात होली जलाने के बाद भला कौन सोता । फाग और रसिया गाते हुए लोग गलियों में खूब हंगामा करते थे । कहीं रज्जू काछी अपनी भैंस को खुद ही हाँकता हुआ चिल्लाता जाता था --"अरे भैया, मेरी भैंस को भड्या ( डाकू) लिये जा रहे हैं बचाओ ।" कहीं शर्मा जी चबूतरा पर खडे होकर लश्कर ( ग्वालियर ) के बाजार की हलचल का सजीव प्रसारण करते । तो कहीं कोई भाभी भैया से रो रोकर शिकायत करती कि उन्होंने खींच कर भाभी की नाक कुछ ज्यादा लम्बी करदी है । 
मैं भांग जैसी चीजों से हमेशा दूर रहती आई हूँ । शुरु में अपनी मर्जी से तो कम, लेकिन काकाजी के डर और माँ की नैतिक शिक्षाओं के कारण । बाद में किसी भी नशा से नफरत करना निजी सिद्धान्त बन गया । नशा और नशेबाज दोनों से मेरा पता नही किस जन्म का बैर है । हाँ भाँग वाले तमाशे मुझे बडे रोचक लगते थे । लेकिन एक दिन मैं खुद तमाशा बन गई । 
हुआ यों कि जब काकाजी स्कूल चले गए तो मैं उनके कमरे में ,जिसे वे कचहरी कहा करते थे ,सफाई करने गई । वहीं अलमारी में एक काँच की शीशी में बडी ही सुन्दर और स्वादिष्ट दिखने वाली चीज देखी । उसमें  हरी पत्तियों के चूरे के साथ घी शक्कर और बादाम के कतरे भी थे । मन नही माना । शीशी खोलकर थोडा निकाल कर चखा । गजब का स्वाद था । शायद मैंने कहीं लिखा भी है कि काकाजी आयुर्वेद में खासी जानकारियाँ रखते थे । नाडी देखकर ही बता देते थे कि वात कुपित है या पित्त । अपने लिये और कभी-कभी हमारे लिये स्वादिष्ट और पौष्टिक पाक भी बनवाते थे । मुझे शीशी में वैसा ही कुछ लगा । एक फंकी ली तो फिर हाथ रुका ही नही । यह जानते हुए भी कि मैं चोरी जैसा कुछ गलत कर रही हूँ मैंने चार-पाँच चुटकियाँ भर कर मुँह में डाल ही लीं । मिठाई को सामने पाकर मेरा खुद पर काबू नही रहता । ( अब तो बच्चे टोकने लगे हैं और डाक्टर ने भी चेतावनी दे दी है इसलिये नियन्त्रण कर रही हूँ ) 
ज्यादा ले लूँगी तो काकाजी तुरन्त भाँप लेंगे---यह सोचकर शराफत के साथ मैंने शीशी बन्द कर वहीं रखदी । और बाहर गली में निकल गई । पर यह क्या ..। थोडी देर बाद आसपास कुछ घूमता हुआ सा लगने लगा । उधर पुष्पाजीजी पानी भरने के लिये बुलाने आगईं । मैंने कहा-- "मेरी गर्दन और सिर तो है ही नही कलशा कहाँ रखूँगी ।" पुष्पाजीजी ने मुझे भेदिया नजरों से देखा ।
"बेशरम , सच बता तूने क्या खाया है ।"  
"पुष्पाजीजी !"--मुझे बडे जोर की हँसी आई और हँसती चली गई । हँसते-हँसते बोली---
"लेकिन पुष्पाजीजी तुम दो कैसे होगई हो । अरे दो नही तीन चार ...इधर भी ,पुष्पाजीजी ,उधर भी...पुष्पा...।" 
"अब पक्का होगया किसी ने तुझे भाँग पिलादी है । "पुष्पाजीजी ने मुझे खींचकर घर ले जाते हुए कहा । 
"तुम बेकार शक कर रही हो । जहाँ चाहो कसम ले लो । सच्ची मैंने भाँग नही खाई ।" मैं पुरजोर अपनी सफाई दिये जारही थी पर मानता कौन ?  
इसके बाद मुझे याद नही । जब होश आया तो बहुत से लोग मेरे आसपास खडे थे । मैं बहुत शर्मिन्दा हुई । खास तौर पर काकाजी के सामने । लेकिन आश्चर्य !! काकाजी ,जो हमें सिर्फ सजाएं सुनाते थे ,मेरे लिये शिकंजी और लस्सी तैयार कर रहे थे । 
वह मेरे जीवन का पहला और अन्तिम अनुभव था । 

8 टिप्‍पणियां:

  1. मैने सुना है भाँग का नशा चढ़ने के बाद बड़े सुन्दर दृष्य दिखाई देते हैं खूब अच्छे-अच्छे अनुभव होते हैं .शिवशंभु का चिट्ठा पढ़ ही रखा है -एक बार पा कर देखूँगी ज़रूर कैसा लगता है.

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  2. एक ही बार जीवन में खायी थी लगभग इसी उम्र में , उसके बाद कान पकड लिए इस शिवप्रसाद से ! :)

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  3. भांग का नशा बड़ा बेढब होता है, एक बार होली में किया है, कभी भूलना संभव नहीं है वह।

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  4. रोचक संस्‍मरण। भांग के नशे में अकेले विचरण करें तो आपको जीवन का श्रेष्‍ठ नशा होगा, बशर्ते आप बेहोश ना हों और आपको डर न लगे।

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  5. दीदी, बहुत ही मज़ेदार घटना है यह. और मुझे याद आ गई होली की ही एक घटना. होली के दूसरे दिन मेरे दादा जी ने मेरी अम्मा को बुलाकर पूछा, "दुलहिन! कल आपने भाँग पी थी क्या?"
    "नहीं तो बाबू जी!"
    दादा जी हँसने लगे और बोले, "कल रात जो आपने मुझे खाना परोसा था, उसमें जो बच गया है वो रखा है टेबुल पर."
    जब अम्मा ने देखा तो पता चला कि उन्होंने दादा जी को चालीस पूरियाँ परोस दी थीं! उनसे मज़ाक करते हुये मेरी बुआ लोगों ने उनको भाँग पिला दी थी!!
    हमने तो कभी चखा ही नहीं कोई नशा! लेकिन होली के साथ इस तरह की घटना लगभग सबके साथ जुड़ी है.. ये न हो तो त्यौहार का कोई एक रंग फीका रह जाता है!!

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  6. बहुत ही मज़ा आया पढ़ कर ... वैसे मैंने अभी तक भांग अभी नहीं खाई पर किस्से जरूर सुने हैं कि अजीब अजीब हरकत शुरू कर देते हैं लोग ... लेकिन होली पे सब कुछ माफ है ..
    आपको और परिवार में सभ्जी को होली कि हार्दिक बधाई ...

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  7. मजेदार !! :) पापा ने एक बार भांग पी ली थी गलती से...वो किस्सा याद आ गया अभी.....सोचता हूँ लिखूंगा उसपर भी कभी :)

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