शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

आँगन में 'चाँदनी '.


क्या हुआ कि
टहनियों के झुरमुट रोक लेते है राह
वर्जनाएं लगाए खड़ी हैं
दीवारें और मुँडेरें ‘
डराते हैं अँधेरे 
पर रुकता नहीं कभी , 
उतरना 'चाँदनी' का
आँगन में ।
किसी न किसी झरोखे से
झाँक ही जाती है वह
दबे पाँव
मुस्कराकर,
भर देती है उजाला 
कोने-कोने में।
आँखों में , मन में . .
   
एक नियामत ही तो है
यों उतर आना 'चाँदनी' का 
आँगन में .  

5 टिप्‍पणियां:

  1. वर्जनाओं, बाधाओं के रोके कब रुका है प्रकाश... कब थमी है चाँदनी!! कारण बस इतना सा है की वो (चाँदनी) है, एक सत्य, एक यथार्थ! लेकिन वो जो उसे रोक सके अर्थात तम, उसका कोई अस्तित्व ही नहीं। केवल उस चाँदनी की अनुपस्थिति ही अंधियारे का जीवन है। एक मिथ्या।
    फिर भला सत्य की चाँदनी का मार्ग बाधित कर सके इतना साहस किस दाल, छत, मुंडेर या अँधेरे में है। सत्य की उजास का कोई बाधक नहीं।
    छोटी सी इस कविता में मुझे ओशो की वाणी और गीता का सन्देश दिख रहा है! प्रेरक कविता, दीदी!

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  2. चांद की छाया समस्‍याओं के बीच कानों तक पहुंच ही जाती है। और समस्‍या भी चांद रात में सिमट जाती है। सुन्‍दर।

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  3. वर्जनाएं और रोकें एक अतिरिक्त आकर्षण का कारण बन जाती है ,मानस को सजग-सचेत कर आस्वाद गहरा देती है .

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  4. रौशनी किसके रोके रुकी है ... घना अँधेरा भी नहीं कर सका ये काम ...
    और वर्जनाएं तो सदा उनको तोड़ने को प्रेरित करती रही हैं ...

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