शनिवार, 14 जनवरी 2017

'परब' तिलवा' और मकर-संक्रान्ति--एक संस्मरण

मकर-क्रान्ति से सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है ,सूर्य उत्तरी गोलार्द्ध की ओर गति करता है ,यानी सूर्य का उत्तरायण होना प्रारम्भ होता है ,आज के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने जाता है इसलिये लोग तिल का दान करते हैं ..वगैरा वगैरा .”....
तब घर के बड़े- बुजुर्गों की इन बातों से हमारा कोई वास्ता नहीं था . हमारे लिये तो मकर-संक्रान्ति का सबसे पहला और बड़ा मतलब था तड़के ही नदी के बर्फीले जल में डुबकी लगाकर 'परब' लेना.
सूरज उगने से पहले 'परब' (स्नान) लेने से ही पूरा पुण्य मिलता है .वह भी ठण्डे पानी से. जो आज के दिन नहाए बिना कुछ खाएगा ऐसा वह घोर नरक में जाएगा .” 
नानी सबको सुनाती थीं .
पता नहीं ऐसे तथ्य किसने खोज निकाले होंगे .किसने इस तरह की परम्पराएं बनाईं होंगी जिनका पालन दादी ,नानी ,माँ आदि बड़ी कठोरता से करतीं थीं . यहाँ तक कि किसी परम्परा को न मानने वाले पिताजी भी तड़के ही नहा लेते थे .लेकिन शायद माँ जानती थीं कि रजाई से निकलकर जनवरी की कड़कड़ाती ठण्ड में जम जाने की हद तक ठण्डे होगए बर्फीले पानी में डुबकी लगाने के लिये हमें न तो पुण्य का लालच विवश कर सकता है न ही नरक का डर .इसलिये वे दूसरा प्रलोभन देतीं थीं --- जब तक नदी में चार डुबकियाँ लगाकर नहीं आओगे , किसी को तिलबा( गुड़ की चाशनी में पागे गए तिल के लड्डू )  नहीं मिलेंगे .   
यह बात हमें उस सबक की तरह याद थी जिसे याद किये बिना हमारा न स्कूल में गुजारा था न ही घर में .सो मुँह-अँधेरे जैसे ही गलियों में लोगों की कलबलाहट गूँजती ,मैं और सन्तोष (छोटा भाई) रजाई का मोह छोड़कर नदी के घाट की ओर दौड़ पड़ते थे . हमारे गाँव से बिलकुल सटकर बहती छोटी सी 'सोन' नदी ,जिसे अब नदी कहना खुद के साथ सरासर छलावा करना होगा ,तब गाँव की जीवनरेखा हुआ करती थी .कहीं ठहरी हुई सी और कहीं कलकल करती बहती वह नदी  नहाने ,कपड़े धोने और सिंचाई के साथ साथ जानवरों को पीने का पानी और शौकिया खाने वालों को मछली भी देती थी . हमने भी उसके किनारे खूब सीप शंख बटोरे थे और खूब रेत के घरोंदे बनाए थे . 
अब 'सोन' अपने नाम तो केवल बरसात में ही सार्थक करती हैं . बाकी पूरे साल उसकी धारा उजड़ी हुई माँग सी पड़ी रहती है .क्योंकि लोगों ने पानी को अपनी अपनी फसलों के लिये जगह जगह रोक रखा है .इसी प्रवृत्ति पर दुष्यन्त कुमार ने क्या खूब कहा है--
"यहाँ तक आते आते सूख जातीं हैं कई नदियाँ ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ."
खैर....
नदी में डुबकी लगाते हुए हमें कुछ खास अनुभव हुए जैसे 'पड़ोस के पंडित जी नहाते समय ऊंची आवाज में जोर जोर से जो 'हर हर गंगे गोदावरी...' बोलते हैं वह भक्तिवश नहीं बल्कि ठण्ड को परास्त करने के लिये बोलते हैं '...कराटे में भी चिल्लाने के पीछे शायद यही तथ्य होगा..... 'कि ठण्डे पानी से नहाने के बाद सर्दी कम लगती है .'..कि 'नहाने के बाद हर कोई अपने आपको उनसे श्रेष्ठ समझता है जो नहाए नहीं हैं .' यही नहीं नहाने से 'माँ की नजरों में भी प्यार और प्रशंसा आ जाती है .जो हर बच्चे के लिये एक उपलब्धि होती है .'
'अच्छे' 'सयाने' बच्चे की उपाधि से अलंकृत करके माँ हमें रजाई में बिठाकर जब तिल के दो दो लड्डू पकड़ा देतीं थी तब वह उपलब्धि हमारे लिये किसी राष्ट्रीय पुरस्कार से कम नहीं थी .

इस पर्व पर गाय बैल की पूजा का महत्त्व तो उस समय मालूम नहीं था लेकिन मिट्टी से बैल गुड़िया (गाय )बनाने की बात न करूँ तो बात कुछ अधूरी रहेगी . इन्हें बनाने के लिये भूसे का बारीक चूरा या गोबर मिलाकर मसल मसलकर चिकनी मिट्टी तैयार करना फिर बहुत रच रचकर बैल जोड़ी बनाना सूखने पर सफेद खडिया से रंगना ये सारी तैयारियाँ करते हम लोग ताऊजी ( स्व. श्री भूपसिंह श्रीवास्तव) को देखा करते थे . ताऊजी आँखों की जगह लाल काली घंघुची लगाते थे . सींगों को काला रंगते थे . पीठ पर दोनों तरफ थैलियों वाला ,कपड़े का पलान सिल कर डालते थे जिनमें तिलवा भरे जाते थे . गुड़िया ( गाय ) को तो इतनी सुन्दर बनाते थे कि लोग देखते रह जाते थे . मजे की बात यह कि इन्हें पहियेदार बनाते थे कि कहीं भी घुमा सकें . इस परम्परा की जड़ में हो सकता है ताऊजी की कलाप्रियता और बच्चों के लिये नया कुछ करने की ही मंशा रही हो क्योंकि वे एक अद्भुत शिक्षक भी थे . बाद में मैं बनाने लगी . जब तक गाँव में रही मैं अपने बच्चों के लिये भी बनाती रही .
गुड़ तिल से गाय बैल की पूजा , मँगौड़े ,रसखीर ( गन्ने के रस और चावल से बनी खीर ) तिल बाजरा की टिक्की भी मकर-संक्रान्ति की मीठी यादों से अभिन्न हैं .
उसी दिन मोरपंख-सज्जित साफा बाँधे मंजीरे बजाते और "संकराँति के निरमल दान..." गाते हुए फूला जोशी का आते थे भी कम आनन्दमय नही होता था . फूला बाबा को सब लोग खिचड़ी और तिलवा देते थे और वह सबको आशीष .
मूल उतारने वाला फूला जोशी , चूड़ियाँ पहनाने वाला जुम्मा मनिहार ,कंघा रिबन बेचने वाला नौशे खां ,आटा लेने वाला धनकधारी ,बहुरूपिया साँई बाबा ,ढोल बजाकर विरुदावली गाने वाला भगवनलाल नट आदि कई लोग थे जिनका गाँव के दाना-पानी पर उतना ही अधिकार था जितना गाँववालों का . कैसा आनन्दमय था वह जीवन ..कहाँ गए वे लोग ,जिनकी खुशी सुख-सुविधाओं की मोहताज़ नही थी ... 

आप सबको तिल गुड़ की महक और मिठास के साथ मकरसंक्रान्ति की हार्दिक बधाई .

7 टिप्‍पणियां:


  1. बदल गये जीवन के ढंग ,नहीं रहे सीधे-सरल मन,उड़ गये कहीं बचपन के संग. !

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  2. वो कितने अच्छे दिन थे बुआ!! :)

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  3. ऐसी यादें जब भी आती हैं, दिल यही सोचता है...काश !कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन 😊

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  4. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "ब्लॉग बुलेटिन - ये है दिल्ली मेरी जान “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  5. दीदी, हमारे यहाँ दो दिन पहले धान आ जाता था, जिसे अम्मा पानी में फूलने छोड़ देती थी! बाद म मेरी ड्यूटी होती थी वो सारा दो मन धान ठेले पर लदवाकर चूड़ा मिल में ले जाने की. वहाँ रात भर लाइन में लगकर चूड़ा कुटवाता था और फिर अम्मा सारा सूप में फटक कर साफ़ करतीं. गाँव का गुड़ और वो सब ... बस यादों में रह गया है!
    आपको भी शुभकामनाएँ!!

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  6. ऐसे कितने ही उत्सवों का आनद अब बाजारवाद ने ले लिए है ... सब कुछ बस दिखावा और सिर्फ दिखावा ... सच कहा है कहाँ गए वो दिन ... शायद यादों में ... आपको ढेरों शुभकामनायें मकर सक्रांति की ...

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  7. I also remember this festival was more beautiful in village. Infact, urbanization has taken away lot of things.

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